सूरदास की झोपड़ी कहानी - मुंशी प्रेमचंद

जुलाई 30, 2021

सूरदास की झोपड़ी कहानी मुंशी प्रेमचंद ने लिखी है और यह कहानी उनके उपन्यास रंगभूमि का एक अंश है। इसके मुख्य पात्र सूरदास और उसका बेटा मिठुआ है। मुंशी प्रेमचंद की कहानियों का सम्राट कहा जाता है क्योंकि उनकी कहानियां बहुत ही रोचक और पढ़ने में सबको पसंद आती हैं।

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सूरदास की झोपड़ी कहानी का सारांश-मुंशी प्रेमचंद

इस कहानी में मुख्य पात्र के रूप में सूरदास और उसके बेटे मिठुआ को बताया गया है। भैरो की पत्नी सुभागी भैरो की मार के डर से सूरदास की झोपड़ी में छुप जाती है और सूरदास के हस्तक्षेप के कारण भैरो अपनी पत्नी को नहीं मार पाता है और यह बात से भैरो नाराज है भैरव को उकसाने का काम जखधर ने किया है। उसके बाद भैरो सूरदास जी बदला लेने की ठान लेता है।

सूरदास की झोपड़ी कहानी का निष्कर्ष

सूरदास को पता था कि उसकी झोपड़ी जगदर नहीं जलाई है लेकिन फिर भी वह बदला लेने की भावना अपने मन में नहीं रखता बल्कि पुनर्निर्माण में विश्वास करता है। और अपने बेटे मिठुआ के सवाल पर कहता है की अगर कोई 100 लाख बार झोपड़ी में आग लगा दे तो मैं 100 लाख बार वापस झोपड़ी बनाऊंगा।

सूरदास की झोपड़ी संपूर्ण कहानी

रात के 2:00 बजे होंगे की अकस्मात सूरदास की झोपड़ी में ज्वाला उठी। लोग अपने-अपने द्वारों पर सो रहे थे। निंद्रा अवस्था में भी उप चेतना जागती रहती है। दमके दम में सैकड़ों आदमी जमा हो गए। आसमान पर लाली छाई हुई थी, ज्वाला इन लपक लपक कर आकाश की ओर दौड़ने लगी। कभी उनका आकार किसी मंदिर के स्वर्ण कलश सा हो जाता था, कभी विवाह के झोंकों से जो कंपित होने लगती थी, मानो जल में चांद का प्रतिबिंब है। आग बुझाने का प्रयत्न किया जा रहा था पर झोपड़ी की आग, ईर्ष्या की आग की भांति कभी नहीं बुझती। कोई पानी ला रहा था, कोई यू शोर मचा रहा था किंतु अधिकांश लोग चुपचाप नैराश्यपूर्ण दृष्टि से अग्नि दहा को देख रहे थे, मानो किसी मित्र की चिताग्नि है। 

ऐसा सूरदास दौड़ा हुआ आया और चुपचाप ज्वाला के प्रकाश में खड़ा हो गया। बजरंगी ने पूछा -यह कैसी लगी सूरे, चूल्हे में तो आग नहीं छोड़ दी थी?

सूरदास -झोपड़ी में जाने का कोई रास्ता नहीं है?

बजरंगी -अब तो अंदर-बाहर सब एक हो गया है। दीवारें जल रही है। 

सूरदास -किसी तरह से नहीं जा सकता?

बजरंगी -कैसे जाओगे? देखते नहीं हो यहां तक लपटे आ रही हैं। 

जगधर सुरे क्या आज चूल्हा ठंडा नहीं किया था। 

नायक राम -चूल्हा ठंडा किया होता तो दुश्मनों का कलेजा कैसे ठंडा होता।

जगधर- पांडाजी मेरा लड़का काम न आए, अगर मुझे कुछ भी मालूम हो। तुम मुझ पर नाहक सुभा करते हो।

नायक राम -मैं जानता हूं जिसने लगाई है, बिगाड  न दूं तो कहना।

ठाकुरदीन - तुम क्या बिगाड़ोगे भगवान आप ही बिगाड़ देंगे इसी तरह जब मेरे घर में चोरी हुई थी तो सब स्वाहा हो गया था। 

जगधर - जिसके मन में इतनी खुटाई हो भगवान उसका सत्यानाश कर दे।

सूरदास - अब तो लपट नही आती।

बजरंगी - हां फुंस जल गया अब धरण जल रही है।

सूरदास - अब तो अंदर जा सकता हु।

नयकराम - अंदर तो जा सकते हो; पर बाहर नहीं निकल सकते अब चलो आराम से सो रहो जो होना था हो गया पछताने से क्या होगा।

सूरदास - हां सो रहूंगा जल्दी क्या है।

थोड़ी देर में रही सही आग भी बुझ गई कुशल यह हुई कि और किसी के घर में आग न लगी। सब लोग इस दुर्घटना पर आलोचना करते हुए विदा हुए। सन्नाटा छा गया। किंतु सूरदास अभी वहीं बैठा हुआ था। उस झोपड़े के जल जाने का दुख न था, बर्तन आदि के जल जाने का भी दुख न था; दुख था उस पोटली का, जो उसकी उम्र भर की कमाई थी, जो उसके जीवन की सारी आशाओं का आधार थी। जो उसकी सारी यात्राओं और रचनाओं का निष्कर्ष थी। इस छोटी सी पोटली में उसका, उसके पितरों का और उसके नाम लेवा का उधार संचित था। यही उसके लोक और परलोक, उसकी दिन दुनिया का आशा दीपक थी। उसने सोचा पोटली के साथ रुपए थोड़े ही जल गए होंगे। अगर रुपए पिकल भी गए होंगे तो चांदी कहां जाएगी। क्या जानता था कि आज यह विपत्ति आने वाली है।  नहीं तो यही न सोता। पहले तो कोई झोपड़ी के पास आता ही नहीं और अगर आग लगाता भी, तो पोटली को पहले ही निकाल लेता। सच तो यह है कि मुझे यहां रुपये रखनी ही नहीं चाहिए थी पर रखता कहां? मोहल्ले में ऐसा कौन है जिसे रखने को देता हाय! पूरे ₹500 थे कुछ पैसे ऊपर हो गए थे। क्या इसी दिन के लिए पैसे बटोर रहा था।

खा लिया होता तो कुछ तस्कीन होती। क्या सोचता था और क्या हुआ! गया जाकर पितरों को पिंडा देने का इरादा किया था। अब उनसे कैसे गला छूटेगा? सोचता था कहीं मिठुआ की सगाई ठहर जाए तो कर डालूं। बहू घर में आ जाए तो एक रोटी खाने को मिले! अपने हाथों ठोक ठोक कर खाते एक युग बीत गया। बड़ी भूल हुई। चाहिए था कि जैसे-जैसे हाथों में रुपए आते एक-एक कर काम पूरा करता जाता। बहुत पांव फैलाने का यही फल है।

उस समय तक राख ठंडी हो चुकी थी। सूरदास अटकल से द्वार की ओर झोपड़ी में घुसा; पर दो-तीन पग के बाद एकाएक पांव भूबल में पड़ गया। ऊपर रखती लेकिन नीचे आग। तुरंत पाव खींच लिया और अपनी लकड़ी से रख को उलटने पलटने लगा। जिस से नीचे की आग भी जल्द राख हो जाए। आधे घंटे में उसने सारी राख नीचे से ऊपर कर दी। और तब फिर डरते डरते राख पर पैर रखा। राख गर्म थी पर असहनीय न थी। उसने उसी जगह की सीध में राख को टटोलना शुरू किया। जांच छप्पर में पोटली रखी थी। उसका दिल धड़क रहा था। उसे विश्वास था कि रुपए मिले या ना मिले पर चांदी तो कहीं गई ही नहीं। सहसा वह उछल पड़ा, कोई भारी चीज हाथ लगी। उठा लिया पर टटोलकर देखा तो मालूम हुआ ईट का टुकड़ा है। फिर टटोलने लगा जैसे कोई आदमी पानी में मछलियां टटोले। चीज हाथ न लगी। तब तो उसने नैराश्य की उतावली और अधीरता के साथ सारी राख छान डाली। एक एक मुट्ठी राख हाथ में लेकर देखी। लौटा मिला, तवा मिला, किंतु पोटली न मिली। उसका वह पैर जो अब तक सीढ़ी पर था फिसल गया। और अब वह अथाह गहराई में जा पड़ा। उसके मुख से सहसा एक चीज निकल आई। वह वही रात पर बैठ गया और बिलख बिलख कर रोने लगा। यह फूस की राख न थी। उसकी अभिलाषा ओं की राख थी। अपनी बेबसी का इतना दुख उसे कभी नहीं हुआ था। 

तड़का हो गया, सूरदास अब राख के ढेर को बटोरकर एक जगह कर रहा था। आशा से ज्यादा दीर्घजिवी और कोई वस्तु नहीं होती। 

उसी समय जगधर आकर बोला - सूरे सच कहना तुम्हें मुझ पर तो सुभा नहीं है।

सूरे को सुभा तो था, पर उसने छुपा कर कहा तुम्हारे ऊपर क्यों सुभा करूंगा तुमसे मेरी कौनसी अवदात थी। 

जगधर मुहल्लेवाले तुम्हें भड़काएँगे, पर मैं भगवान से कहता हूं , मैं इस बारे में नहीं जानता। 

सूरदास - अब तो जो कुछ होना था. हो चुका। कौन जाने किसी ने लगा दी या किसी की चिलम से उड़कर लग गई? यह भी तो हो सकता है कि चूल्हे में आग आग गई हो। बिना जाने-बूझे किस पर सुभा करूँ? 

जगधर- इसी से तुम्हें चिता दिया कि कहीं सुभे में मैं भी न मारा जाऊँ।

सूरदास -तरफ से मेरा दिल साफ है।

जगधर को भैरों की बातों से अब यह विश्वास हो गया कि यह उसी की शरारत है। उसने सूरदास को रुलाने की बात कही थी। उस धमकी को इस तरह पूरा किया। वह वहाँ से सीधे भैरों के पास गया। वह चुपचाप बैठा नारियल का हुक्का पी रहा था, पर मुख से चिंता और घबराहट झलक रही थी। जगधर को देखते ही बोला-कुछ सुना; लोग क्या बातचीत कर रहे हैं? 

जगधर- सब लोग तुम्हारे ऊपर सुभा करते है। नयकराम की धमकी तो तुमने अपनेे कानो से सुनी।  

भैरो -यहाँ ऐसी धमकियों की परवा नहीं है। सबूत क्या है कि मैंने लगाई? 

जगधर - सच कहो तुम्हीं ने लगाई ?

भैरो - हां चुपके से एक दियासलाई लगा दी। 

जगधर- मैं कुछ पहले ही समझ गया था पर यह तुमने बुरा किया। झोपड़ी जलाने से क्या मिला? दो-चार दिन में फिर दूसरी झोपड़ी तैयार हो जाएगी।

भैरो - कुछ हो दिल की आग तो ठंडी हो गई। यह देखो! 

यह कहकर उसने एक थैली दिखाई, जिसका रंग धुएँ से काला हो गया था। जगधर ने उत्सुक होकर पूछा- इसमें क्या है? अरे! इसमें तो रुपये भरे हुए हैं।

भैरो - यह सुभागी को बहका ले जाने का जरीबाना है। 

जगधर- सच बताओ, ये रुपये कहाँ मिले? 

भैरों- उसी झोंपड़े में बड़े जतन से धरन की आड़ में रखे हुए थे। पाजी रोज राहगीरों को ठग-ठगकर पैसे लाता था और इसी थैली में रखता था। मैंने गिने हैं। पाँच सौ से ऊपर हैं। न जाने कैसे इतने रुपये जमा हो गए। बच्चू को इन्हीं रुपयों की गरमी थी। अब गरमी निकल गई। अब देखूँ किस बल पर उछलते हैं। बिरादरी को भोज-भात देने का सामान हो गया। नहीं तो इस बखत रुपये कहाँ मिलते? आजकल तो देखते ही हो, बल्लमटेरों के बिकरी कितनी मंदी है।

जगधर - मेरी तो सलाह है कि रुपये उसे लौटा दो। बड़ी मसक्कत की कमाई है। हजम न होगी। जगधर दिल का खोटा आदमी नहीं था; पर इस समय उसने यह सलाह उसे नेकनीयती से नहीं, हसद से दी थी। उसे यह असह्य था कि भैरों के हाथ इतने रुपये लग जाएँ। भैरों आधे रुपये उसे देता, तो शायद उसे तस्कीन हो जाती पर भैरों से यह आशा न की जा सकती थी। बेपरवाही से बोला- मुझे अच्छी तरह हजम हो जाएगी। हाथ में आए हुए रुपये को नहीं लौटा सकता। उसने तो भीख माँगकर ही जमा किए हैं, तो नहीं तौला था। 

जगधर- पुलिस सब खा जाएगी।

भैरों -सूरे पुलिस में न जाएगा। रो-धोकर चुप हो जाएगा। जगधर- गरीब की हाय बड़ी जानलेवा होती है।

भैरों- वह गरीब है। अंधा होने से ही गरीब हो गया? जो आदमी दूसरों की औरतों पर डोरे डाले, जिसके पास सैकड़ों रुपये जमा हों, जो दूसरों को रुपये उधार देता हो, वह गरीब है? गरीब जो कहो, तो हम-तुम हैं। घर में ढूँढ़ आओ, एक पूरा रुपया न निकलेगा। ऐसे पापियों को गरीब नहीं कहते। अब भी मेरे दिल का काँटा नहीं निकला। जब तक उसे रोते न देखेंगा, यह काँटा न निकलेगा। जिसने मेरी आबरू बिगाड़ दी. उसके साथ जो चाहे करूँ, मुझे पाप नहीं लग सकता। 

जगधर का मन आज खोंचा लेकर गलियों का चक्कर लगाने में न लगा। छाती पर साँप लोट रहा था इसे दम-के-दम में इतने रुपये मिल गए. अब मौज उड़ाएगा। तकदीर इस तरह खुलती है। यहाँ कभी पड़ा हुआ पैसा भी न मिला। पाप-पुन्न की कोई बात नहीं मैं ही कौन दिनभर पुन्न किया करता हूँ? दमड़ी-दाम-कौड़ियों के लिए टेनी मारता हूँ। बाट खोटे रखता हूँ तेल की मिठाई को भी की कहकर बेचता हूँ। ईमान गँवाने पर भी कुछ नहीं लगता। जानता हूँ, यह बुरा काम है पर बाल बच्चों को पालना भी तो जरूरी है। इसने ईमान खोया, तो कुछ लेकर खोया, गुनाह बेलज्जत नहीं रहा। अब दो-तीन दुकानों का और ठेका ले लेगा। ऐसा ही कोई माल मेरे हाथ भी पड़ जाता, तो जिंदगानी सुफल हो जाती।

जगधर के मन में ईष्या का अंकुर जमा। वह भैरों के घर से लौटा तो देखा कि सूरदास राख को बटोरकर उसे आटे की भाँति गूँथ रहा है। सारा शरीर भस्म से ढका हुआ है और पसीने की धारे निकल रही हैं। बोला- सूरे क्या ढूंढ़ते हो?

सूरदास- कुछ नहीं यहाँ रखा हो क्या था। यही लोटा तवा देख रहा था।

जगधर- और वह थैली किसकी है, जो भैरो के पास है ?

सूरदास चौका क्या इसीलिए भैरों आया था? जरूर यही बात है। घर में आग लगाने के से पहले रुपए निकाल लिए होंगे।

लेकिन अंधे भिखारी के लिए दरिद्रता इतनी लज्जा की बात नहीं है, जितना धन सूरदास जगधर से अपनी आर्थिक हानि को गुप्त रखना चाहता था। वह गया जाकर पिंडदान करना चाहता था. मिठुआ का ब्याह करना चाहता था, कुआँ बनवाना चाहता था, किंतु इस ढंग से कि लोगों को आश्चर्य हो कि इसके पास रुपये कहाँ से आए लोग यही समझे कि भगवान दीनजनों की सहायता करते हैं। भिखारियों के लिए धन-संचय पाप-संचय से कम अपमान की बात नहीं है। बोला- मेरे पास थैली-वैली कहाँ? होगी किसी की थैली होती,तो भीख माँगता

जगधर -मुझसे उड़ते हो? भैरों मुझसे स्वयं कह रहा था कि झोंपड़े में धरन के ऊपर यह थैली मिली। पांच सौ रुपए से कुछ बेसी है।

सूरदास- वह तुमसे हँसी करता होगा। साढ़े पाँच रुपये तो कभी जुड़े ही नहीं, साढ़े पाँच सौ कहाँ से आते।

इतने में सुभागी वहाँ आ पहुंची। रातभर मंदिर के पिछवाड़े अमरूद के बाग में छिपी बैठी थी। वह जानती थी, आग भैरों ने लगाई है। भैरों ने उस पर जो कलंक लगाया था, उसकी उसे विशेष चिंता न थी क्योंकि यह जानती थी किसी को इस पर विश्वास न आएगा। लेकिन मेरे कारण सूरदास का या सर्वनाश हो जाए, इसका उसे बड़ा दुःख था। वह इस समय उसको तस्कीन देने आई थी। जगधर को वहाँ खड़े देखा तो झिझकी। भय हुआ, कहीं यह मुझे पकड़ न लें। जगधर को वह भैरों ही का दूसरा अवतार समझती थी। उसने प्रण कर लिया था कि अब भैरों के घर न जाऊँगी, अलग रहूँगी और मेहनत-मजूरी करके जीवन का निर्वाह करूँगी। यहाँ कौन लड़के रो रहे हैं. एक मेरा ही पेट उसे भारी है न? अब अकेले ठोंके और खाए और बढ़िया के चरण धो-धोकर पिए, मुझसे तो यह नहीं हो सकता। इतने दिन हुए, इसने कभी अपने मन से धेले का सेंदुर भी न दिया होगा, तो मैं क्यों उसके लिए मरूँ?

वह पीछे लौटना ही चाहती थी कि जगधर ने पुकारा-सुभागी, कहाँ जाती है? देखी अपने खसम की करतूत, बेचारे सूरदास को कहीं का न रखा।

सुभागी ने समझा, मुझे झाँसा दे रहा है। मेरे पेट की थाह लेने के लिए यह जाल फेंका है। व्यंग्य से बोली- उसके गुरु तो तुम्हीं हो, तुम्हीं ने मंत्र दिया होगा।

जगधर-हाँ, यही मेरा काम है, चोरी डाका न सिखाऊँ तो रोटियाँ क्योंकर चले...! जब तक समझता था, भला आदमी है, साथ बैठता था, हँसता-बोलता था, लेकिन आज से कभी उसके पास बैठते देखा, तो कान पकड़ लेना। जो आदमी दूसरों के घर में आ लगाए, गरीबों के रुपये चुरा ले जाए वह अगर मेरा बेटा भी हो तो उसकी सूरत न देखूँ। सूरदास ने न जाने कितने जतन से पाँच सौ रुपये बटोरे थे। वह सब उड़ा ले गया। कहता हूँ, लौटा दो, तो लड़ने पर तैयार होता है।

सूरदास-फिर वही रट लगाए जाते हो। कह दिया कि मेरे पास रुपये नहीं थे, कहीं और जगह से मार लाया होगा, मेरे पास पाँच सौ रुपये होते, तो चैन की बंसी न बजाता, दूसरों के सामने हाथ क्यों पसारता ?

जगधर - सूरे, अगर तुम भरी गंगा में कहो कि मेरे रुपये नहीं हैं, तो मैं न मानूँगा। मैंने अपनी आँखों से वह थैली देखी है। भैरों ने अपने मुँह से कहा कि यह थैली झोंपड़े में धरन के ऊपर मिली तुम्हारी बात कैसे मान लूँ?

सुभागी - तुमने थैली देखी है?

जगधर -हाँ देखी नहीं तो क्या झूठ बोल रहा हूँ ?

सुभागी सूरदास, सच-सच बता दो रुपये तुम्हारे हैं!

सूरदास- पागल हो गई है क्या? इनकी बातों में आ जाती है। भला मेरे पास रुपये कहाँ से आते ?

जगधर -इनसे पूछ रुपये न थे, तो इस घड़ी राख बटोरकर क्या ढूँढ़ रहे थे?

सुभागी ने सूरदास के चेहरे की तरफ अन्वेषण की दृष्टि से देखा उसकी उस बीमार की सी दशा थी, जो अपने प्रियजनों की तस्कीन के लिए अपनी असहा वेदना को छिपाने का असफल प्रयत्न कर रहा हो। जगधर के निकट आकर बोली-रुपये जरूर थे, इसका चेहरा कह देता है। 

जगधर- मैंने थैली अपनी आँखों से देखी हैं।

सुभागी -अब चाहे वह मुझे मारे या निकाले पर रहूँगी उसी के घर कहाँ कहाँ थैली को छिपाएगा? कभी तो मेरे हाथ लगेगी। मेरे ही कारण इस पर यह बिपत पड़ी है। मैंने ही उजाड़ा है, मैं ही बसाऊँगी। जब तक इसके रुपये न दिला दूंगी. मुझे चैन न आएगी। यह कहकर वह सूरदास से बोली- तो अब रहोगे कहाँ?

सूरदास ने यह बात न सुनी। वह सोच रहा था- रुपये मैंने ही तो कमाए थे, क्या फिर नहीं कमा सकता? यही न होगा, जो काम इस साल होता, वह कुछ दिनों के बाद होगा। मेरे रुपये थे ही नहीं, शायद उस जन्म में मैंने भैरों के रुपये चुराए होंगे। यह उसी का दंड मिला है। मगर बेचारी सुभागी का अब क्या हाल होगा? भैरों उसे अपने घर में कभी न रखेगा। बिचारी कहाँ मारी-मारी फिरेगी। यह कलक भी मेरे सिर लगना था। कहीं का न हुआ। धन गया, घर गया, आबरू गई जमीन बच रही है, यह भी न जाने जाएगी या बचेगी अंधापन ही क्या थोड़ी बिपत थी कि नित ही एक न एक चपत पड़ती रहती है। जिसके जी में आता है, चार खोटो-खरी सुना देता है।

इन दुःखजनक विचारों से मर्माहत-सा होकर वह रोने लगा। सुभागी जगधर के साथ भैरों के घर की ओर चली जा रही थी और यहाँ सूरदास अकेला बैठा हुआ रो रहा था। सहसा वह चौक पड़ा। किसी और से आवास आई-तुम खेल में रोते हो। मिठुआ घीसू के घर से रोता चला आता था, शायद घीसू ने मारा था। इस पर घीसू उसे चिका रहा था-खेल में रोते हो।

सूरदास कहाँ तो नैराश्य, ग्लानि, चिंता और क्षोभ के अपार जल में गोते खा रहा था. कहाँ यह चेतावनी सुनते ही उसे ऐसा मालूम हुआ, किसी ने उसका हाथ पकड़कर किनारे पर खड़ा कर दिया। वाह! मैं तो खेल में रोता हूँ कितनी बुरी बात है। लड़के भी खेल में रोना बुरा समझते हैं, रोनेवाले को चिढ़ाते हैं, और मैं खेल में रोता हूँ। सच्चे खिलाड़ी कभी रोते नहीं, बाजी-पर-बातो हारते हैं. चोट-पर-चोट खाते हैं, भक्के पर धक्के सहते हैं पर मैदान में डटे रहते हैं, उनको त्यारियों पर बल नहीं पड़ते हिम्मत उनका साथ नहीं छोड़ती दिल पर मालिन्य के छोटे भी नहीं आते, न किसी से जलते हैं, न चिढ़ते हैं। खेल में सेना कैसा? खेल हँसने के लिए, दिल बहलाने के लिए है, रोने न के लिए नहीं।

सूरदास उठ खड़ा हुआ और विजय गर्व की तरंग में राख के ढेर को दोनों हाथों से उड़ाने लगा।

आवेग में हम उद्दिष्ट स्थान से आगे निकल जाते हैं। वह संयम कहाँ है, जो शत्रु पर विजय पाने के बाद तलवार को म्यान में कर ले?

एक क्षण में मिठुआ, घीसू और मुहल्ले के बीसों लड़के आकर इस भस्म-स्तूप के चारों ओर जमा हो गए और मारे प्रश्नों के सूरदास को परेशान कर दिया। उसे राख फेंकते देखकर सबों को खेल हाथ आया। राख की वर्षा होने लगी। दम-के-दम में सारी राख बिखर गई, भूमि पर केवल काला निशान रह गया।

मिठुआ ने पूछा-दादा, अब हम रहेंगे कहाँ?

सूरदास दूसरा घर बनाएँगे।

मिठुआ -और कोई फिर आग लगा दे?

सूरदास -तो फिर बनाएँगे।

मिठुआ- और फिर लगा दे?

सूरदास -तो हम भी फिर बनाएँगे।

मिठुआ -और कोई हजार बार लगा दे? सूरदास -तो हम हजार बार बनाएँगे।

बालकों को संख्याओं से विशेष रुचि होती है। मिठुआ ने फिर पूछा और जो कोई सौ लाख बार लगा दें?

सूरदास ने उसी बालोचित सरलता से उत्तर दिया तो हम भी सौ लाख बार बनाएँगे।

सूरदास की झोपड़ी कहानी में पत्रों के नाम

  • मिठुआ
  • सूरदास
  • जगधर
  • भैरो
  • सुभागी
  • नायक राम
  • बजरंगी
  • और गांव वाले।

भैरो ने सूरदास की झोपड़ी में आग क्यों लगाई?

एक दिन भैरो अपनी पत्नी को मार रहा था, और भैरो की पत्नी सुभागी भागी भागी सूरदास की झोपड़ी में घुस गई। जिसके बाद सूरदास ने भैरो से सुभागी को बचा लिया। जिसके बाद गांव और आसपास ये बात फैल गई की सुभागी और सूरदास का कुछ न कुछ चक्कर है जिससे चिढ़कर भैरो ने सूरदास की झोपड़ी जलाई।

चूल्हा ठंडा किया होता तो दुश्मनों का कलेजा कैसे ठंडा होता? नायक राम के इस कथन में भाव को स्पष्ट कीजिए। 

इस कथन के माध्यम से नायक राम कहना चाहता है ,की यदि सूरदास अगर चूल्हा ठंडा कर देता तो अब उसके दुश्मन खुश नही हो रहे होते और न ही सूरदास की झोपड़ी जल रही होती।

यह फूस की राख न थी, उसकी अभिलाषाओं की राख थी। संदर्भ सहित विवेचन कीजिए।

सूरदास उस आग में अपने रूपिए ढूंढ रहा था लेकिन राख में उसे रुपए मिल ही नहीं रहे थे। सूरदास उन रुपयों से अपने पितृ को गया जाकर पीड़ा देना चाहता था। और मिठुआ की सगाई करना चाहता था और साथ ही साथ कुआ भी खुदवाना चाहता था। इसलिए यह राख फूस की न होकर उसकी अभिलाषाओं की राख थी।

सूरदास की झोपड़ी कहानी की पीडीएफ

संदर्भ

  • यह भारतीय कॉपीराइट कानून का पालन करके लिखी गई है।इस पर किसी का कॉपीराइट नही है।
  • यूट्यूब की वीडियो सिर्फ एंबेड की गई है, न की डाउनलोड करके उपयोग की गई है।

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